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Saturday, January 16, 2010

अनुवाद की समस्याएं और चुनौतियां

अनुवाद की प्रामाणिकता, भाषा और सटीकता पर प्रश्नचिह्न लगाए जाने के बावजूद यह स्पष्ट है कि अनुवाद वर्तमान समाज की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यकता बन गया है। इसी कारण आज अनुवाद पर स्वतंत्र विधा के रूप में विचार किया जा रहा है। वर्तमान वैज्ञानिक तथा औद्योगिक उन्नति तथा संचार और क्रान्ति के युग में अनुवाद और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। टेक्नोलॉजी तथा सूचना के क्षेत्र में प्रत्येक राष्ट्र और समाज शीघ्रातिशीघ्र उन्नति के लिए प्रयासरत है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में यह अनिवार्य हो गया है कि विभिन्न भाषाओं में तुरन्त अनुवाद की व्यवस्था उपलब्ध हो। आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में त्वरित अनुवाद के महत्त्व को देखते हुए कम्प्यूटरीकृत अनुवाद के क्षेत्र में भी अनुसंधान किए जा रहे हैं।

आमतौर से, एक भाषा की किसी सामग्री का दूसरी भाषा में रूपान्तर ही अनुवाद है। इस तरह अनुवाद का कार्य है - एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करना है। लेकिन इसे व्यक्त करना सरल काम नहीं है। हर एक भाषा की अपनी विशेषताएं होती हैं, जो अन्य भाषा से कुछ या पूर्णतः भिन्न होती है। अनुवाद करते समय अनुवादक को यह ध्यान रखना होगा कि मूल भाषा के भाव को अनूदित भाषा में पूर्णतः उतारा गया हो। पूर्णतः भाव का मतलब है कि मूल भाषा की सामग्री व अनूदित भाषा की सामग्री पढने से यह प्रतीत नहीं होना चाहिए कि यह अनूदित कृति है। कम से कम मूल भाषा व स्रोत भाषा में निकटता होनी चाहिए। समानता की यह निकटता जितनी अधिक होती है, अनुवाद उतना ही अच्छा और सफल होता है।

अनुवाद की समस्या द्विभाषकीय है, इसके लिये उन दो भाषाओं का पूर्ण ज्ञान अपेक्षित है जिससे और जिसमें अनुवाद होता है। यह समस्या मूलतः दुभाषिये की है। इसका तात्पर्य यह है कि अनुवादक का दो भाषाओं पर इतना अधिकार होना चाहिये कि वह दोनों पक्षों का ठीक-ठीक ज्ञान रखते हुए संबोधित कर सके और समझा सके। भाषा का एक स्वभाव बन जाता है जिसे संस्कार कहते हैं। अनुवाद शैली से विजातीय भाषा को सीखकर मनुष्य धीरे-धीरे स्वभाव अर्जित करता है और अभ्यास बन जाने पर वह कभी-कभी अपने आपको दो नावों पर सवार अनुभव करता है।

अभ्यस्त भाषाम में, हमारा ध्यान लिखने, पढने और बोलने में उन कठिनाइयों की ओर नहीं जाता जो भाषा की संरचना से जुड़ी होत हीं। भावनाओं का प्रकाशन स्वतः प्रवाह में होता चलता है। हम धारा के किसी क्षण में रुककर तल में अन्तर्निहित भावना को देखने का प्रयास नहीं करते। यह तथ्य सजातीय भाषा के लिए अत्यन्त स्वाभाविक है। इसकी समस्या स्वभाषा अनुवाद परिभाषा को विजातीय भाषा की शब्दावली को स्वभाषा में व्यक्त करना है। इसके लिए उस भाषा की भावना का ज्ञान अपेक्षित होता है। उसके अनन्तर उसी के समकक्ष भाव और विचार व्यक्त करने वाले शब्द या वाक्य को स्वभाषा में खोजना पडता है। अनुवाद की वही मूल समस्या है।

भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से अनुवाद की समस्या के दो पहलू हैं। एक है द्विभाषकीय रूपान्तरण और दूसरा है भाव रूपान्तरण। दोनों एक दूसरे के पूरक होकर आते हैं। द्विभाषकीय शैली से किया हुआ अनुवाद शुद्ध रूप मंल शब्दानुवाद होता है, जिसमें तुलनात्मक भाषा विज्ञान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कई बार ऐसा होता है कि एक परिवार की दो भाषाओं में अनुवाद बडी सरलता से हो जाता है। उदाहरणार्थ, जर्मन और इंग्लिश भाषाएं, ग्रीक परम्परा से जुडी होने के कारण परस्पर शाब्दिक लेन-देन भी कर सकती है और जहाँ वैसा सम्भव न हो वहाँ मूल ग्रीक शब्दावली से अपना शब्द बना सकती है।

प्रत्येक भाषा में वाक्य की कुछ इकाइयां होती हैं जिनसे उनकी संरचना होती है। पदों से बनने वाले वाक्यांश वाक्य के घटक बनते हैं और एक वाक्य दूसरे वाक्य के साथ समन्वय प्राप्त करके एक वाक्यता लेता है। कोई आदेश, निर्देश या उपदेश अपनी समग्र विषय-वस्तु के साथ एक महाकाव्य बन जाता है। अनुवादक को विषय वस्तु पर ध्यान रखकर शब्द योजना, वाक्य रचना और समन्वय की व्यवस्था करनी होती है। जाहिर है यह प्रश्न जितना द्विभाषकीय लगता है उससे कहीं अधिक भाव रूपान्तरण का है। भाव रूपान्तरण का सम्बन्ध सामाजिक द्विभाषकी से है। हमारे देश के संदर्भ में ऐतिहासिक दृष्टि से यह समस्या ईस्ट इण्डिया के समय से भारत में ही जन्म लेकर विकसित हुई। मैकाले के प्रयासों से भारत में अंग्रेजी की प्रशासन की भाषा होने का अवसर प्राप्त हुआ जिसके कारण प्रशासनिक कामकाज में अनुवाद शिथिल बना दिया गया था। सामान्यतया ऐसे प्रत्येक देश में अनुवाद की समस्या आती है जहाँ दो या दो से अधिक भाषाएं प्रशासन में कार्यरत होती है। स्विटजरलैंड इसका आदर्श उदाहरण है, वहाँ प्रशासन में चलने वाली तीनों भाषाएं एक ही परिवार की होने के कारण भारत के समान जटिलता नहीं उत्पन्न करतीं।

इन समस्याओं का समाधान सरल नहीं है। बहुत से शब्दों के समानार्थक शब्द दूसरी भाषा में होते ही नहीं हैं। नीम के लिए अंग्रेजी भाषा में तथा लिली के लिए हिन्दी भाषा में शब्द नहीं है। यह परेशानी तब और बढ जाती है जब प्रशासनिक शब्दावली का अनुवाद करना पडता है। ऐसे व्यक्तियों को इस तरह के अनुवाद में कृत्रिमता अनुभव होती है, जिनकी जुबान पर मूलभाषा का शब्द चढ चुका होता है। उदाहरणार्थ, यूनिवर्सिटी को सही या गलत ढंग से सभी बोल लेते हैं, कचहरी, मदरसा, फालतू आदि प्रचलित शब्द रहे हैं। पालतू पशुओं को मवेशी कहा जाता रहा है। इन और इन जैसे प्रचलित शब्दों के लिए जहाँ तक हो नये शब्दों की खोज नहीं करनी चाहिये।

सुभाष चंद्र
हिंदी अनुवादक

Translation Company